बुजुर्ग क्रिकेटर दत्ताजीराव गायकवाड़ नहीं रहे

स्पोर्ट्स

नई दिल्ली। 1950 के दशक की बॉम्बे की मजबूत टीम को परेशान करने वाले दत्ताजीराव गायकवाड़ का मंगलवार को गृहनगर बड़ौदा में निधन हो गया। 95 वर्ष दत्ताजीराव पूर्व भारतीय बल्लेबाज और कोच अंशुमन गायकवाड़ के पिता थे।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकाम : किस्मत के सहारे भारतीय कप्तान बने दत्ताजीराव कवर ड्राइव के साथ क्रिकेट के अन्य शॉट खेलने के मामले में विजय हजारे को टक्कर देते थे लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करने में विफल रहे। करियर में 11 टेस्ट खेलने वाले बड़ौदा के इस बल्लेबाज का अंतरराष्ट्रीय करियर घरेलू क्रिकेट जितना परवान नहीं चढ़ा। उन्हें 1952 से 1961 तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वैसी सफलता नहीं मिली।
उनके बेटे अंशुमान ने 1970 से 80 के दशक तक 40 टेस्ट खेले। अंशुमान का रक्षात्मक खेल अपने पिता से मजबूत था।
इंग्लैंड के खिलाफ कप्तान रहे : दत्ताजीराव ने 1959 के इंग्लैंड दौरे पर पांच टेस्ट में से चार में कप्तानी भी की थी। इस दौरे में भारत को पांचों मैच में हार का सामना करना पड़ा था। टेस्ट में दत्ताजीराव का औसत 20 से कम का रहा लेकिन वह ऐसा समय था जब टीम को जीत से ज्यादा मैचों में हार का सामना करना पड़ता था। उस समय विदेश दौरे पर जाने वाली टीमें चार या पांच टेस्ट के अलावा, कम से कम 25 से 30 प्रथम श्रेणी मैच भी खेलती थीं। दत्ताजीराव ने काउंटी टीमों के खिलाफ काफी अच्छा प्रदर्शन किया था। हालांकि वह फ्रेडी ट्रूमैन की गति, या एलेक बेडसर की स्विंग गेंदबाजी का डटकर सामना करने में विफल रहे थे। इस तथ्य को हालांकि कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर के रूप में अपने औसत करियर के बावजूद दत्ताजीराव ने अपना सब कुछ दिया। भारतीय कप्तान के रूप में वह इतिहास का हिस्सा बने रहेंगे। उनके आलोचकों ने आरोप लगाया था कि दत्ताजीराव को भाई-भतीजावाद के कारण टीम की बागडोर सौंपी गई थी। उन्हें वडोदरा के पूर्व महाराजा फतेहसिंह गायकवाड़ का करीबी माना जाता था, जो राष्ट्रीय टीम के प्रबंधक थे। विजडन ने भी उनकी कप्तानी की शैली की आलोचना करते हुए लिखा था, उनमें जज्बा और मजबूत व्यक्तित्व की कमी दिखी। दत्ताजीराव ने एक साक्षात्कार में कहा था कि राष्ट्रीय टीम में जगह बनाने के बाद वह अपने कमरे में भी टीम की जर्सी पहनते थे। घरेलू मैचों में बड़ौदा का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने कई यादगार पारियां खेली थीं। उनकी मौजूदगी में बड़ौदा ने 1957-58 में रणजी ट्रॉफी का पहला खिताब जीता था। वह टीम के सबसे अहम खिलाड़ियों में से एक थे। उन्होंने फाइनल में सेना के खिलाफ शतकीय पारी खेल टीम को चैंपियन बनाने में अपना योगदान दिया था। उस दौर में हालांकि हजारे हमेशा उन पर भारी पड़े। दत्ताजीराव ने उस रणजी फाइनल में शतक बनाया, तो हजारे ने दोहरा शतक जड़ दिया। दत्ताजीराव ने इससे पहले होलकर के खिलाफ सेमीफाइनल में भी मैच विजयी 145 रन बनाए।

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